भारत सरकार देश में खेती को बढ़ावा देने के साथ-साथ किसानों की आमदनी को भी बढ़ाना चाहती है। इसके लिए सरकार ने किसान उत्पादक संगठनों, यानी FPO को बढ़ावा देने का फैसला किया है। FPO की शुरुआत भले ही 2003 में कंपनी एक्ट में संशोधन के साथ हुई हो, लेकिन इन पर विशेष जोर 2015 के बाद दिया गया। केंद्र सरकार की ओर से इस मॉडल को बढ़ावा देने के लिए विशेष योजनाएं और कार्यक्रम शुरू किए गए। इनमें सबसे महत्वपूर्ण 10,000 नए FPO का गठन है, जिसकी घोषणा फरवरी 2021 में हुई थी। यह लक्ष्य अगले पांच साल में पूरा किया जाना है। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने 1 जनवरी 2021 को इन नए FPO के गठन के लिए नए दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं।
इसमें कोई शक नहीं है कि नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद से FPO के गठन की गति बढ़ी है। UPA सरकार के 10 वर्षों में नाम मात्र के ही FPO बने और यह सिलसिला 2015 के बाद ही तेज हुआ। अब तक मौजूद कुल FPO का 65% सिर्फ वर्ष 2019-21 के बीच खड़े हुए हैं। लेकिन यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है। सरकार चाहे FPO की सफलता या नए FPO की संख्या को लेकर कितना भी ढोल पीट ले, सच यह है कि FPO मॉडल भारतीय कृषि और किसानों के लिए एक शानदार अवसर पेश करने के बावजूद अब तक सफल साबित नहीं हुए हैं। कागज पर हजारों FPO होने के बावजूद वास्तव में जमीन पर किसानों की जिंदगियों में सार्थक और सकारात्मक बदलाव लाने वाले इन संगठनों की संख्या उंगलियों पर गिने जा सकने लायक है।
इसका कारण यह है कि FPO मॉडल के विकास और क्रियान्वयन की जो भी राह है, उसमें कुछ बुनियादी कमियां हैं। इन कमियों को जब तक दूर नहीं किया जाएगा, तब तक देश में FPO मॉडल की अधिकतम संभावनाओं को कभी हासिल नहीं किया जा सकता। अब जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण केंद्रीय आम बजट 2023-24 की तैयारियों में लग चुकी हैं, यह सही अवसर है जब इन बुनियादी कमियों की बात की जाए, और सरकार से उम्मीद की जाए कि आगामी बजट प्रस्तावों में इन कमियों को दूर किया जाएगा
फंड की कमी
किसान उत्पादक संगठनों की सबसे बड़ी और कठिन समस्या है पर्याप्त फंडिंग की। FPO के सभी शेयरधारक किसान होते हैं। उनकी आर्थिक क्षमता बहुत सीमित होती है, इसलिए वे हजार, दो हजार या 10 हजार रुपये से ज्यादा के शेयर नहीं खरीद सकते। यह शेयर कैपिटल ही FPO की कुल पूंजी होती है, जिससे वह बिजनेस कर सकता है। उसे जो आर्थिक सहायता सरकारी एजेंसियों, NABARD या SFAC से मिलती है, वह सिर्फ कामकाजी खर्च, अधिकारियों की सैलरी, ऑफिस का खर्च इत्यादि के लिए होता है।
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लेकिन FPO को बिजनेस के लिए फंड चाहिए होता है क्योंकि FPO जब अपने सदस्य किसानों से उपज खरीदते हैं, तब उन्हें नकद भुगतान करना होता है। हालांकि सरकार ने अब तक FPO फंडिंग के लिए कई उपाय किए हैं, लेकिन वे सब नाकाफी है। सीतारमन के लिए यह बजट एक मौका होगा, जब बैंकों और अन्य रेगुलेटेड वित्तीय सस्थाओं के लिए FPO फंडिंग को आसान बनाया जाए।
किसान क्रेडिट कार्ड (KCC) की सुविधा FPC को देना एक आसान उपाय है। किसानों को 3 लाख रुपये तक का जो कर्ज 7% पर उपलब्ध है, वही किसानों की संस्था को बाजार से 18-24% पर लेना होता है। इस विसंगति को दूर करना आसान है, और वित्त मंत्री बहुत आसानी से इससे जुड़ी घोषणा बजट में कर सकती हैं।
कामकाजी लागत को कम करना
यह एक विडंबना है कि गरीब किसानों की कंपनी को कानूनन बिलकुल उसी श्रेणी में रखा गया है, जिसमें लाखों करोड़ रुपये नेटवर्थ की देश की बड़ी कंपनियां हैं। क्योंकि किसान उत्पादन कंपनियों (FPC) का रजिस्ट्रेशन कंपनी एक्ट 1951 के तहत होता है, तो उन्हें भी रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज (RoC) के तमाम नियमों का पालन करना पड़ता है। इस कम्प्लायंस के कारण उनका खर्च बहुत बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए, अन्य कंपनियों की तरह FPC को भी तिमाही आधार पर बही-खाते का ऑडिट कराना होता है, जिसके लिए उन्हें चार्टर्ड अकाउंटेंट की सेवाएं लेनी होती हैं।
ऐसे खर्चों के कारण FPC की व्यवहार्यता घटती है। वित्त मंत्री आगामी बजट में FPC के रजिस्ट्रेशन के लिए कंपनी एक्ट में विशेष प्रावधान कर सकती हैं, जिससे उन्हें RoC की कम्प्लायंस जरूरतों से छूट मिल सके।
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FPC को कारोबारी का दर्जा
यदि FPC किसानों की कंपनी है, तो कृषि उपज की मार्केटिंग में उसे वे सारी सुविधाएं क्यों नहीं मिलनी चाहिए, जो किसानों को मिलती है? यह एक वाजिब सवाल है, जिसका जवाब वित्त मंत्री सीतारमन आम बजट में दे सकती हैं। हालांकि उन जवाबों के कई आयाम राज्य सरकारों तक भी जाएंगे, क्योंकि मंडियां और एपीएमसी राज्य सरकारों के विषय हैं, लेकिन यह सवाल इतना अहम है कि इसे सिर्फ मुश्किलों के बहाने नहीं छोड़ा जा सकता। FPC को अपने सदस्य किसानों से खरीद करने के लिए भी मंडी लाइसेंस की आवश्यकता होती है, जैसा कि कारोबारियों के लिए जरूरी होता है। इस मंडी लाइसेंस को हासिल करने के लिए FPC को दो-दो साल तक इंतजार करना होता है और उनसे लाइसेंस फीस के नाम पर 1 लाख से लेकर 3 लाख रुपये तक की रकम ली जाती है। ये सारे बिंदु ऐसे हैं, जिन पर राज्यों के साथ मिलकर केंद्र सरकार को काम करना होगा।
GST का बोझ
किसान उत्पादक संगठनों पर भी सामान्य कंपनियों की तरह वस्तु एवं उत्पाद कर (GST) लगता है। यद्यपि यह आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन FPC के सामान्य टर्नओवर को देखते हुए बहुत आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकार के कुल कर संग्रह में यह हिस्सेदारी शायद ही 1% भी हो। लेकिन यदि सरकार FPC के तैयार उत्पादों या प्रोसेस्ड फूड को GST से मुक्त कर दे, तो FPC के उत्पाद बाजार में ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी हो सकेंगे। यह FPC के लिए आम बजट 2023-24 में सरकार को ओर से एक बड़ी सौगात हो सकती है।
इन 4 छोटे-छोटे कदमों से भारत सरकार FPO/FPC को भारतीय कृषि सुधारों का माध्यम बनाने की अपनी योजना को पूरी कर सकती है। सिर्फ 10,000 FPO बनने से वास्तविक बदलाव नहीं आएगा।